एक पत्रकार की कलम से
कहा जाता है कि पत्रकार को देश और दुनिया की नॉलेज के लिये सिर्फ किताबी नहीं बल्कि खूब घूमना और आम पब्लिक से मिलते रहना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि अखबार में खबरों का सम्पदान करने वाले डेस्ककर्मियों को देश दुनिया घूमना तो बहुत दूर की बात है, घर पर अगर कोई बीमार हो और वो अकेला हो तो भी छुट्टी नहीं मिलती है। दिनों दिन स्थिति गम्भीर होती जा रही है। हाल ही मेरे एक मित्र को अवकाश लेने के कारण नौकरी छोड़ने के लिये मजबूर होना पड़ा। कुछ संस्थान में सिटी डेस्क इंचार्ज और सम्पादक तक खुलेआम गालीगलौज करते हैं। कहीं कहीं तो जबरदस्त तरीके से बेज्जती की जाती है। सैलरी इतनी कि किसी को बता भी नहीं सकते। उम्मीद है कि डेस्क कर्मी संस्थान के लिये समर्पित हों, खुलेआम 24 घण्टे अलर्ट की नौकरी बताकर दी जा रही है। सम्पादक आज मैनेजर की भूमिका में हैं, जो सिर्फ कर्मचारियों को फुसलाकर और हड़क से केवल पेज टाइम से छूटने पर फोकस करता है।



90 प्रतिशत डेस्क कर्मचारी कम वेतन, काम के प्रति असन्तुष्ट और अवकाश न मिलने की समस्या से त्रस्त हैं। उम्मीद ये भी है कि डेस्ककर्मी को फील्ड पत्रकार से जानकारी ज्यादा रखनी है, क्योंकि वो पत्रकार की गंदी लिखी कॉपी को इनरिच करता है।



वैल्यू ऐड करवाता है। एक डिप्रेशन में जा रहे डेस्ककर्मी जिसकी मां पिता बीमार हैं, वेतन भी कम है और सुबह रोज मीटिंग में जलील हो रहा है, वो कॉपी को किस अंदाज में वैल्यू ऐड करेगा। लिखना नहीं चाहिए, लेकिन जब हम अन्य वर्गों के लिये लिखते हैं तो अखबार में काम करने वाले डेस्क कर्मचारियों के बारे में भेदभाव क्यों.. ऐसा नहीं है कि किसी को पता नहीं है, लेकिन सब इन बातों को नजरअंदाज करते हैं। अभी हाल ही में लखनऊ में उपमुख्यमंत्री डॉक्टर दिनेश शर्मा ने कहा था कि पत्रकारों से जुड़ी खबर अखबारों में नहीं दिखती। जबकि ये लोग देश दुनिया की खबरें छापते हैं। हर अखबार में डेस्क और फील्ड कर्मचारी होते हैं, जब दोनों अपना काम ईमानदारी से करते हैं तो अखबार की रीडरशिप और प्रसार बढ़ता है, अखबार का प्रसार घटने के एक कारण ये भी है। पूरा दोष तकनीक को नहीं देना चाहिए। जिन अखबारों में कर्मचारियों को अच्छा वेतन और सुविधाएं मिलती है, वहां काम का माहौल खुशनुमा होता है, और लोग बिना दबाव निर्णय लेते हैंं। ये पोस्ट उन साथी डेस्क कर्मियों के लिखी है, जिनके संस्थान उनका शोषण कर रहे हैं। आप गलतफहमी में रहते हैं कि आप पत्रकार हैं। हकीकत है कि आप एक थर्ड क्लास कर्मचारी हैं।



क्या मीडिया, किसान, मजदूर और मेहनतकश वर्ग की आवाज़ बन सकती है?
हाँ, न्यूज जंगल में हम ये मानते है की इस कॉर्पोरेट मीडिया का विकल्प हो सकता है I आज दुनिया के विभिन्न हिस्सों में मीडिया केवल उस स्त्रोत की तरह हो गई है जिसका काम उपभोक्ता तक कॉर्पोरेट उद्योगों के वस्तुओं को पहुँचाना और उसका प्रचार करना रह गया हैI यहाँ तक की सार्वजनिक मीडिया भी इसी उपभोक्तावाद और प्रचार-प्रसार की शिकार हो गई है I ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए समाचार की जगह ऊँची टीआरपी पे ध्यान दिया जा रहा है I
पाठकों और शुभचिंतको के स्वैच्छिक सहयोग के साथ न्यूज जंगल हर उस मुद्दे को बिना पक्षपात के उठाने की कोशिश करता है जो बेहद महत्वपूर्ण हैं और जिन्हें मुख्यधारा की मीडिया नज़रंदाज़ करती रही है I इसके अलावा यहां मिलेगी पॉलिटिकल उठापटक, मनोरंजन की दुनिया, खेल-खिलाड़ी, सोशल मीडिया का वायरल रायता, फिल्म रिव्यू, खास मुद्दों पर माथापच्ची और बहुत कुछ।