यूपी से जुड़े रावण के कुछ रोचक किस्से,आइए जानें

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न्यूज जगंल डेस्क: कानपुर दशहरा…यह शब्द सुनते ही जहन में जलते हुए लंबे चौड़े रावण का पुतला आंखों के सामने आ जाता है। हालांकि, यूपी में ऐसी कई जगह हैं जहां से रावण के रोचक किस्से जुड़े हुए हैं। नोएडा के एक गांव के लोग रावण को अपना बेटा मानते हैं। लखनऊ-कानपुर में रावण को दुःख हरने वाला माना जाता है। जबकि हाथरस में तो रावण के नाम पर 45 साल पहले डाक टिकट भी जारी किया जा चुका है। दशहरे के मौके पर पढ़िए ऐसे ही रोचक किस्से…

लखनऊ-कानपुर: यहां जले हुए रावण के पुतले की लकड़ियां घर ले जाते हैं
लखनऊ की ऐशबाग रामलीला सालों पुरानी है। बताया जाता है कि यहां 16वीं शताब्दी से रामलीला का आयोजन किया जाता है। हर साल यहां रावण का पुतला दहन किया जाता है। कुछ ऐसा ही कानपुर के परेड ग्राउंड और शास्त्री नगर में भी होता है। हालांकि, रावण दहन देश भर में होता है, लेकिन इन दोनों शहरों में कुछ लोग रावण को शुभ मानते हैं। लखनऊ और कानपुर में रावण दहन के बाद पुतले की जली हुई लकड़ियां, अस्थियों के रूप में ले जाकर घरों की छत पर रख दी जाती हैं। मान्यता है कि इससे सारे कष्ट दूर हो जाते हैं।

लखनऊ के ठाकुरगंज में रहने वाली राधा निगम ने बताया कि वो हर बार दशहरे में रावण दहन के बाद उसकी एक लकड़ी को घर ले आती हैं। उसको छत पर संभाल कर रख देती हैं। उन्होंने बताया कि ऐसा करने से मान्यता है कि घर में बीमारियां नहीं आती हैं और समृद्धि भी रहती है। राधा निगम बताती हैं कि वो बचपन से ही ऐशबाग में रामलीला देखने जा रही हैं। तब उनकी मम्मी वहां से लकड़ी उठा कर घर ले आती थी। अब शादी के बाद भी वो वहां जाती हैं और हर साल लकड़ी लेकर आती हैं। लखनऊ और कानपुर में कई जगहों पर ऐसा किया जाता है।

हाथरस: 45 साल पहले रावण के सम्मान में जारी हुआ था डाक टिकट
भारत सरकार ने 45 साल पहले रावण के सम्मान में डाक टिकट जारी किया था। डाक टिकट संग्रहकर्ता शैलेन्द्र वार्ष्णेय सर्राफ का कहना है कि आज के समय में रावण पर जारी टिकट युवा पीढ़ी रावण के सम्मान में जारी डाक टिकट को देखती है या उसके बारे में पढ़ती है तो आश्चर्यचकित होती है। सरकार रावण के साथ सूर्य चंद्रमा और नरसिंह भगवान की डाकटिकटों का सेट जारी किया था।

नोएडा: यहां रावण का जन्मस्थान है
नोएडा से करीब 15 किलोमीटर दूर बिसरख गांव बसा है। इसे रावण का गांव या रावण धाम से जाना जाता है। यहां न रामलीला होती है, न रावण दहन। यहां के निवासी रावण को राक्षस नहीं बल्कि इस गांव का बेटा मानते हैं। बिसरख में बने रावण मंदिर के पंडित अशोका नंद बताते हैं कि रावण के पिता विश्रवा ब्राह्मण थे। उन्होंने राक्षसी राजकुमारी कैकसी से शादी की थी। रावण के अलावा कुंभकरण, सूर्पणखा और विभीषण का जन्म भी इसी गांव में हुआ।

यही वजह है कि जब पूरा देश अच्छाई की बुराई पर जीत के रूप में रावण के पुतले का दहन करता है, तब इस गांव में मातम का माहौल होता है। दशहरा पर यहां शोक मनाया जाता है। इस परंपरा के पीछे गांव का इतिहास जुड़ा है। यहां दो बार रावण दहन किया गया, लेकिन दोनों ही बार रामलीला के दौरान किसी न किसी की मौत हुई। यहां रावण की आत्मा की शांति के लिए यज्ञ-हवन किए जाते हैं। साथ ही नवरात्रि के दौरान शिवलिंग पर बलि चढ़ाई जाती है।

अष्ठभुजी शिवलिंग एंव रावण अनुसंधान समिति के अध्यक्ष अशोकानंद महाराज का कहना है कि बिसरख रावण के पिता विश्रवा ऋषि का गांव था। उन्हीं के नाम पर गांव का नाम बिसरख पड़ा। वह यहां पर पूजा अर्चना करते थे। रावण का भी जन्म यहीं हुआ था। उन्होंने बताया कि हिंदुस्तान में केवल बिसरख में ही अष्टभुजीय शिवलिंग है। रावण ने यहीं पर अपनी शिक्षा दीक्षा प्राप्त की थी। हिंडन (प्राचीन नाम हरनंदी) नदी के मुहाने पर बने गाजियाबाद में पुरा महादेव शिवलिंग, दुधेश्वर नाथ शिवलिंग, बिसरख स्थित शिवलिंग की स्थापना रावण ने ही की थी।

बागपत: यहां गांव का नाम ही रावण के नाम पर है
राजधानी दिल्ली से महज 22 किलोमीटर दूर बागपत के खेकड़ा तहसील में रावण गांव उर्फ बड़ागांव में ना तो रामलीला होती है और ना रावण के पुतले का दहन होता है। क्योंकि यहां रावण को लेकर लोगों के मन मे आस्था है। यहां के लोग रावण को देवता मानते हैं। गांव में स्थित मंशादेवी मंदिर के पुजारी रमाशंकर तिवारी के अनुसार, रावण हिमालय से मंशा देवी की मूर्ति लेकर गुजर रहा था।

रावण गांव उर्फ बड़ागांव के पास उसे लघुशंका लगी। मूर्ति रखकर वह लघुशंका चला गया। मूर्ति स्थापना को लेकर विशेष शर्त थी कि पहली बार मूर्ति जहां रखी जाएगी वहीं स्थापित हो जाएगी। इस कारण मां की मूर्ति इस गांव में स्थापित हो गई। रावण ने मूर्ति स्थापित होने के बाद यहां एक कुंड खोदा और उसमें स्नान के बाद तप किया। इस कुंड का नाम रावण कुंड है। आसपास के इलाकों में भी इस दिन कोई गांव का व्यक्ति रावण दहन नही देखता क्योंकि उनके लिए ये दुःख की घड़ी है और ऐसा नहीं की ये कोई नई परम्परा हो बल्कि सदियों से यही परंपरा चली आ रही है।

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इटावा: यहां होती है रावण की पूजा
इटावा के जसवंतनगर में न रावण को जलाया नहीं जाता है। साथ ही उसकी पूजा की जाती है। साथ ही लोग पुतले की लकड़ियों को अपने अपने घरों में ले जा करके रखते हैं ताकि वे साल भर हर संकट से दूर रह सके। यूनेस्को ने 2005 की रामलीलाओं की रिपोर्ट में भी जसवंतनगर की रामलीला को स्थान दिया था। यहां कलाकार तांबे, पीतल और लौह धातु से बने मुखौटे पहनकर रामलीला के किरदार निभाते हैं।

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