कांग्रेस में ‘गांधी’ लौटे

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महेश शर्मा (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

यह लगभग साफ हो चुका है कि राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष के लिए चुनाव नहीं लड़ेंगे। जिस दिन परचा दाखिल होंगे और परचा वापसी की अंतिम तारीख होगी, राहुल कर्नाटक में होंगे। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलौत उनसे मिलने केरल के कोच्चि जाएंगे। हालांकि वह कहते हैं कि राहुल को मनाने का यह उनका अंतिम प्रयास होगा। पर कहा जाता है कि उनके नाम पर राहुल की अंतिम मुहर होगी। यानी कांग्रेस में सीताराम केसरी के बाद अशोक गहलौत ऐसे अध्यक्ष हो सकते हैं जो गांधी परिवार से नहीं होंगे। तो सवाल उठता है कि राहुल गांधी की पार्टी में क्या भूमिका होगी? आप यहां पर बिलकुल न समझिएगा कि मैं किसी इस लेख के माध्यम से किसी का महिमामंडन की सीमा पार करने की चेष्टा कर रहा हूं। दरअसल परिस्थितियां ही कुछ ऐसी दिख रही हैं और कांग्रेस के वरिष्ठ लोग कहने भी लगे हैं कि राहुल गांधी भी धीरे-धीरे संगठन के भीतर उस कदकाठी की दिशा में उभर रहे हैं जिसमें कभी कांग्रेस पार्टी के भीतर महात्मा गांधी का कद हुआ करता था। यानी संगठन पर नैतिक नियंत्रण।


महात्मा गांधी बेलगांव के अधिवेशन में 1924 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर स्थापित हुए थे। उनके बाद संभवतः सरोजनी नायडु बनी थी। गांधी इसके बाद कभी भी कांग्रेस के अध्यक्ष नहीं रहे पर उनका कद या व्यक्तित्व संगठन से कहीं ऊपर था। वह जिसे चाहते थे वही अध्यक्ष बनता रहा। सुभाषचंद्र बोस जैसे दिग्गजों ने पार्टी छोड़ी। बाद में उन्हें महात्मा बताते हुए आजाद हिंद फौज के लिए उनका आशीर्वाद मांगा। यानी महात्मा गांधी कांग्रेस के नैतिक प्राधिकारी थे। कुछ न रहते हुए भी सबकुछ। उनकी मरजी के बगैर कांग्रेस में पत्ता तक नहीं हिलता था। उनका दांडी मार्च फिरंगी हुकूमत के लिए बहुत बड़ी चुनौती बनकर उभरा था। तो क्या राहुल गांधी अपनी पार्टी के भीतर उसी पद चिन्हों पर हैं जिस पर कभी महात्मा गांधी हुआ करते थे। हालांकि महात्मा गांधी की विश्यव्यापी लोकप्रिय छवि के आगे राहुल कहीं भी नहीं टिकते हैं, पर यहां पर बात सिर्फ कांग्रेस पार्टी और उसके नेता राहुल गांधी की हो रही है जो किसी भी पद पर न रहते हुए भी सबकुछ हैं जैसा कभी कांग्रेस में महात्मा गांधी हुआ करते थे।
राहुल गांधी भी कांग्रेस के नैतिक प्राधिकारी के रूप में उभर रहे हैं। सोनिया गांधी सिर्फ नाम की हाईकमान रह गयीं हैं। गहलौत या कोई अन्य चेहरा कांग्रेस अध्यक्ष पद पर आता है तो संभव है कि गांधी परिवार से प्रियंका गांधी महासचिव के पद पर बनी रहेंगी। समय आने पर इससे आगे भी जाएं। लेकिन पार्टी अध्यक्ष न बनने को लेकर राहुल गांधी की दो टूक से यह स्पष्ट है कि वह अध्यक्ष नहीं बनेंगे पर डोर उन्हीं के हाथों रहेगी। भजापा की सत्ता को उखाड़ने का संकल्प लिए राहुल ही विपक्ष का प्रमुख चेहरा के रूप में तेजी से उभर रहे हैं। 137 साल पुरानी पार्टी के नेताओं की करतूतों की वजह से आज इसकी लोकप्रियता इतनी घट गयी है कि सत्ता को चुनौती देने के लिए इसे सहयोगी दलों की बैसाखियों की जरूरत पड़ रही है। निश्चित ही राहुल का कद उनके संगठन के काफी बड़ा होता जा रहा है। उनकी पदयात्रा के दौरान उन्हें मिल रहे समर्थन से भाजपा में भी घबराहट महसूस की जा रही है। सत्ता दल के निशाने पर राहुल गांधी ही रहते हैं। और राहुल जिस निर्भीकता से आक्रामक हैं उतना शेष विपक्ष में कोई भी नेता नहीं दिखता। बीती सात सितंबर से भारत जोड़ो यात्रा की शुरुआत की गयी। राहुल लगभग 250 किलोमीटर चले होंगे। उनकी पार्टी के लोग बताते हैं कि पैरों में फफोले तक पड़ गए हैं। यह यात्रा 3570 किलोमीटर की होगी जिसमें 12 राज्य दो केंद्र शासित प्रदेश होंगे। तो सच में भारत टूट रहा है जिसे जोड़ने को राहुल पैदल चल रहे हैं। मुझे याद है कि पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने अपनी पदयात्रा के दौरान कहीं यह बात कही थी कि देश तब टूटता है जब लोगों के दिल टूटते हैं। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को लगता है कि लोगों के दिल टूट रहे हैं जिसे जोड़ने की दिशा में आगे बढ़ना ही भारत जोड़ो है।


महंगाई, बेरोजगारी, भयभीत समाज आदि ऐसे मुद्दे हैं जो पार्टी और उसके नेता को माइलेज दे सकते हैं। यह भी सही है कि देश भौगोलिक दृष्टि से ही नहीं टूटता बल्कि आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से भी टूटता है। यात्रा विरोध भी किया जा रहा है। कोई इसे परिवार जोड़ो यात्रा कह रहा है तो कांग्रेस के अंतर्विरोध समाप्त करने को राहुल की पदयात्रा को ढोंग बता रहा है। भारत पदयात्राओं के इतिहास से भरा पड़ा है। महात्मा गांधी ने 1930 में नमक आंदोलन के नाम पर साबरमती आश्रम से 240 किलोमीटर तक दांडी मार्च किया था। इसके बाद गांधी 1933-34 में छुआछूत के खिलाफ पदयात्रा की थी। 1951 में गांधी के अनुयायी आचार्य बिनोबा भावे भूदान आंदोलन के लिए पदयात्रा की। 6 जनवरी 1983 को चंद्रशेखर 4260 किमी. की लंबी पदयात्रा की थी। वह 25 जून 1983 को राजघाट पहुंचे थे। इसके अलावा भी राजनेता, सोशल वर्कर पदयात्राएं समय-समय पर करते रहे। कालांतर में यह जैसे किसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए लोकतांत्रिक हथियार बन गया हो। न केवल देश की नब्ज टटोलने के लिए बल्कि पदयात्रा दिल की भाषा बोलने समझने का भी सशक्त माध्यम है। कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता पंकज श्रीवास्तव बताते हैं कि राहुल गांधी की स्वीकार्यता कांग्रेस के भीतर और विपक्षी एकता के लिए बनती जा रही है। वह नैतिक प्राधिकारी के रूप में निखर रहे हैं। यह ठोस परिवर्तन के संकेत हैं जो 2024 में दिख सकते हैं।
इस पदयात्रा को लोग विपक्षी एकता को मजबूत करने की दृष्टि से भी देख रहे हैं। एक तो वामपंथी, आम आदमी पार्टी, टीएमसी जैसे दलों का एक मंच पर आना मुश्किल सा दिखता है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति नरमदिली दर्शाते हुए हालिया बयान, उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ के चुनाव में सांसदों को बहिर्गमन का निर्देश ऐसे दृष्टांत हें जो गलबहियां का संकेत देते हैं। यानी टीएमसी यदि एनडीए का घटक बन गया तो कोई अचरज की बात नहीं होगी। राहुल का बार-बार यह कहना कि उनकी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है, यह संकेत देता है कि वह राजनीति में कद्दावर होकर उभरने के प्रयास में है। यानी सत्ता से दूर पर सत्ता पर पूरा नियंत्रण भी रखना चाहते हैं। जैसा कि पहले सत्ता और आश्रम के संबंध हुआ करते थे। आश्रम दूर रहते थे पर उनका पूरा नियंत्रण सत्ता पर हुआ करता था। आप रामायण, महाभारत काल से लेकर लोकतंत्र में महात्मा गांधी, बिनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण तक का उदाहरण ले सकते हैं। तो उनका कदम कमोबेश इसी में दिशा में? इसका जवाब तो वक्त आने पर पता चलेगा, पर इतना जरूर है कि बिना किसी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के भारत जोड़ो यात्रा देश की राजनीति को नयी दिशा देने में काफी कुछ कारगर हो सकती है। और राहुल गांधी को उस मुकाम तक ले जा सकती है जहां से वह कठपुतलियों की डोर अपने हाथ में रख सकते हों।

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