काशी में विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद का इतिहास

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वाराणसी स्थित काशी विश्वनाथ मन्दिर के निर्वाण का सवाल है तो इसका श्रेय अकबर के नौरत्नो में से एक राजा टोडरमल को दिया जाता है ।जिन्होने साल 1585 में अकबर के आदेश पर दक्षिण भारत के विध्दाननारायण भट्ट की मदद से कराया गया था

न्यूज जंगल नेटवर्क, कानपुर : वाराणसी स्थित काशी विश्वनाथ मन्दिर के निर्वाण का सवाल है तो इसका श्रेय अकबर के नौरत्नो में से एक राजा टोडरमल को दिया जाता है ।जिन्होने साल 1585 में अकबर के आदेश पर दक्षिण भारत के विध्दाननारायण भट्ट की मदद से कराया गया था .वाराणसी स्थित काशी विद्यापीठ में इतिहास विभाग में प्रोफ़ेसर रह चुके डॉक्टर राजीव द्विवेदी कहते हैं, “विश्वनाथ मंदिर का निर्माण राजा टोडरमल ने कराया, इसके ऐतिहासिक प्रमाण हैं और टोडरमल ने इस तरह के कई और निर्माण भी कराए हैं. एक बात और, यह काम उन्होंने अकबर के आदेश से कराया, यह बात भी ऐतिहासिक रूप से पुख्ता नहीं है. राजा टोडरमल की हैसियत अकबर के दरबार में ऐसी थी कि इस काम के लिए उन्हें अकबर के आदेश की ज़रूरत नहीं थी.”

प्रोफ़ेसर राजीव द्विवेदी कहते हैं कि विश्वनाथ मंदिर का पौराणिक महत्व तो बहुत पहले से ही रहा है लेकिन बहुत विशाल मंदिर यहां उससे पहले रहा हो यह इतिहास में प्रामाणिक तौर पर कहीं दर्ज नहीं है. यहां तक कि टोडरमल का बनवाया मंदिर भी बहुत विशाल नहीं था.

दूसरी ओर, इस बात को ऐतिहासिक तौर पर भी माना जाता है कि ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण मंदिर टूटने के बाद ही हुआ और मंदिर तोड़ने का आदेश औरंगज़ेब ने ही दिया

ज्ञानवापी मस्जिद की देख-रेख करने वाली संस्था अंजुमन इंतज़ामिया मसाजिद के संयुक्त सचिव सैयद मोहम्मद यासीन कहते हैं कि आम तौर पर यही माना जाता है कि मस्जिद और मंदिर दोनों ही अकबर ने साल 1585 के आस-पास नए मज़हब ‘दीन-ए-इलाही’ के तहत बनवाए थे लेकिन इसके दस्तावेज़ी साक्ष्य बहुत बाद के हैं.

बीबीसी से बातचीत में सैयद मोहम्मद यासीन कहते हैं, “ज़्यादातर लोग तो यही मानते हैं कि मस्जिद अकबर के ज़माने में बनी थी. औरंगज़ेब ने मंदिर को तुड़वा दिया था क्योंकि वो ‘दीन-ए-इलाही’ को नकार रहे थे. मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनी हो, ऐसा नहीं है. यह मंदिर से बिल्कुल अलग है. ये जो बात कही जा रही है कि यहां कुआँ है और उसमें शिवलिंग है, तो यह बात बिल्कुल ग़लत है. साल 2010 में हमने कुएँ की सफ़ाई कराई थी, वहां कुछ भी नहीं था.”

काशी विश्वनाथ मंदिर मामले में दावे का समर्थन करने वाले विजय शंकर रस्तोगी कहते हैं कि औरंगज़ेब ने अपने शासन के दौरान काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने का फ़रमान तो जारी किया था लेकिन उन्होंने मस्जिद बनाने का फ़रमान नहीं दिया था. रस्तोगी के मुताबिक, मस्जिद बाद में मंदिर के ध्वंसावशेषों पर ही बनाई गई है.

मस्जिद बनाए जाने के ऐतिहासिक साक्ष्य बहुत स्पष्ट नहीं हैं लेकिन इतिहासकार प्रोफ़ेसर राजीव द्विवेदी कहते हैं कि मंदिर टूटने के बाद यदि मस्जिद बनी है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं, क्योंकि ऐसा उस दौर में कई बार हुआ. प्रोफ़ेसर राजीव द्विवेदी कहते हैं, “औरंगज़ेब की उपस्थिति में तो नहीं हुआ है, आदेश भले ही दिया हो लेकिन मस्जिद का निर्माण औरंगज़ेब के समय में ही हुआ.”

यानी मस्जिद अकबर के ज़माने में दीन-ए-इलाही के दर्शन के तहत बनाई गई या औरंगज़ेब के ज़माने में इसको लेकर जानकारों में मतभेद है.

वाराणसी में वरिष्ठ पत्रकार योगेंद्र शर्मा ने ज्ञानवापी मस्जिद और विश्वनाथ मंदिर के बारे में काफ़ी शोध किया है. वो स्पष्ट तौर पर कहते हैं, “अकबर के समय में टोडरमल ने मंदिर बनवाया. क़रीब सौ साल बाद औरंगज़ेब के समय मंदिर ध्वस्त हुआ और फिर आगे लगभग 125 साल तक यहां कोई विश्वनाथ मंदिर नहीं था. साल 1735 में इंदौर की महारानी देवी अहिल्याबाई ने वर्तमान मंदिर का निर्माण कराया.”

ज्ञानवापी मस्जिद के निर्माण का समय

भरोसेमंद ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में ज्ञानवापी मस्जिद का पहला ज़िक्र 1883-84 में मिलता है जब इसे राजस्व दस्तावेज़ों में जामा मस्जिद ज्ञानवापी के तौर पर दर्ज किया गया.

सैयद मोहम्मद यासीन कहते हैं, “मस्जिद में उससे पहले की कोई चीज़ नहीं है जिससे स्पष्ट हो सके कि यह कब बनी है. राजस्व दस्तावेज़ ही सबसे पुराना दस्तावेज़ है. इसी के आधार पर साल 1936 में दायर एक मुक़दमे पर अगले साल 1937 में उसका फ़ैसला भी आया था और इसे मस्जिद के तौर पर अदालत ने स्वीकार किया था. अदालत ने माना था कि यह नीचे से ऊपर तक मस्जिद है और वक़्फ़ प्रॉपर्टी है. बाद में हाईकोर्ट ने भी इस फ़ैसले को सही ठहराया. इस मस्जिद में 15 अगस्त 1947 से पहले से ही नहीं बल्कि 1669 में जब यह बनी है तब से यहां नमाज़ पढ़ी जा रही है. कोरोना काल में भी यह सिलसिला नहीं टूटा है.”

हालाँकि मस्जिद के 1669 में बनने का कोई ऐतिहासिक साक्ष्य कहीं उपलब्ध नहीं है जो सैयद मोहम्मद यासीन के दावे की पुष्टि कर सके.

सैयद यासीन बताते हैं कि मस्जिद के ठीक पश्चिम में दो कब्रें हैं जिन पर सालाना उर्स होता था. उनके मुताबिक साल 1937 में कोर्ट के फ़ैसले में भी उर्स करने की इजाज़त दी गई. वो कहते हैं कि ये कब्रें अब भी महफ़ूज़ हैं लेकिन उर्स नहीं होता. दोनों क़ब्रें कब की हैं, इसके बारे में उन्हें पता नहीं है.

1991 से पहले की याचिकाएं

इस वर्ष अप्रैल में वाराणसी की एक निचली अदालत ने पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को ज्ञानवापी परिसर के सर्वेक्षण का आदेश दिया था. ये आदेश उन याचिकाओं पर दिए गए थे जो साल 1991 में दायर की गईं और उसी साल संसद ने उपासना स्थल क़ानून बनाया.

18 सितंबर 1991 में बने इस क़ानून के मुताबिक, 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता. और यदि कोई ऐसा करने की कोशिश करता है तो उसे एक से तीन साल तक की जेल और जुर्माना हो सकता है. चूंकि, अयोध्या से जुड़ा मुक़दमा आज़ादी के पहले से अदालत में लंबित था, इसलिए अयोध्या मामले को इस क़ानून के दायरे से बाहर रखा गया था.

स्थानीय लोगों के मुताबिक, मंदिर-मस्जिद को लेकर कई बार विवाद हुए हैं लेकिन ये विवाद आज़ादी से पहले के हैं, उसके बाद के नहीं. ज़्यादातर विवाद मस्जिद परिसर के बाहर मंदिर के इलाक़े में नमाज़ पढ़ने को लेकर हुए थे. सबसे अहम विवाद साल 1809 में हुआ था जिसकी वजह से सांप्रदायिक दंगे भी हुए थे.

वाराणसी में पत्रकार अजय सिंह बताते हैं, “1991 के क़ानून के बाद मस्जिद के चारों ओर लोहे की चहारदीवारी बना दी गई हालांकि उसके पहले यहां किसी तरह के क़ानूनी या फिर सांप्रदायिक विवाद की कोई घटना सामने नहीं आई थी.”

मस्जिद की इंतज़ामिया कमेटी के संयुक्त सचिव सैयद मोहम्मद यासीन भी इस बात की पुष्टि करते हैं.

यासीन कहते हैं, “साल 1937 में फ़ैसले के तहत मस्जिद का एरिया एक बीघा, नौ बिस्वा और छह धूर तय किया गया था लेकिन 1991 में सिर्फ़ मस्जिद के निर्माण क्षेत्र को ही घेरा गया और अब मस्जिद के हिस्से में उतना ही क्षेत्र है. यह कितना है, इसकी कभी नाप-जोख नहीं की गई है. विवाद हमारे जानने में कभी हुआ ही नहीं. यहां तक कि ऐसे भी मौक़े आए कि ज़ुमे की नमाज़ और शिवरात्रि एक ही दिन पड़ी, लेकिन तब भी सब कुछ शांतिपूर्वक रहा.”

साल 1991 में सर्वेक्षण के लिए अदालत में याचिका दायर करने वाले हरिहर पांडेय बताते हैं, “साल 1991 में हम तीन लोगों ने ये मुक़दमा दाख़िल किया था. मेरे अलावा सोमनाथ व्यास और संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रहे रामरंग शर्मा थे. ये दोनों लोग अब जीवित नहीं हैं.”

इस मुक़दमे के दाख़िल होने के कुछ दिनों बाद ही मस्जिद प्रबंधन कमेटी ने केंद्र सरकार की ओर से बनाए गए उपासना स्थल क़ानून, 1991 का हवाला देकर इसे हाईकोर्ट में चुनौती दी.

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने साल 1993 में स्टे लगाकर यथास्थिति क़ायम रखने का आदेश दिया था लेकिन स्टे ऑर्डर की वैधता पर सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद साल 2019 में वाराणसी कोर्ट में फिर से इस मामले में सुनवाई शुरू हुई और इसी सुनवाई के बाद मस्जिद परिसर के पुरातात्विक सर्वेक्षण की मंज़ूरी दी गई.

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