…तो क्षेत्रीय दल बनेंगे किंगमेकर?

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महेश शर्मा (वरिष्ठ पत्रकार) : लोकसभा 2024 के तीसरे चरण का मतदान होने वाला है। उदासीन मतदाता, मुद्दाविहीन चुनाव की तस्वीर सामने आ चुकी है। तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। एनडीए का बृहद स्वरूप को चुनौती दे रहे इंडिया गठबंधन क्षेत्रीय दलों के भरोसे पर टिका है। ऐसे में क्षेत्रीय दलों की उपयोगिता की चर्चा भी शुरू हो चुकी है।

क्या क्षेत्रीय दल बनेंगे किंग मेकर?

सवाल उठाए जाने लगे हैं कि क्या क्षेत्रीय दल बनेंगे किंग मेकर? हालांकि भाजपा के पूर्ण बहुमत की संभावनाओं के बीच विश्लेषकों की राय चौंका देने वाली आने लगी है, ऐसे में सरकार बनाने में क्षेत्रीय दलों की उपयोगिता की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। एनडीए और इंडिया गठबंधन दोनों ही किसी भी फोल्ड से अलग रहने वाले क्षेत्रीय दलों पर अभी से पैनी नजर रखे हैं। ऐसी कई क्षेत्रीय राजनीतिक दल हैं जिनका अपने-अपने राज्यों में परचम लहराता रहता है। भाजपा और कांग्रेस दो ही राष्ट्रीय दल हैं जो आमने-सामने हैं। वह चाहें पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस हो या फिर यूपी में समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल, बसपा। बिहार में राजद, जेडीयू, लोजपा किसी भी राष्ट्रीय दल का समीकरण बिगाड़ने की क्षमता में हैं। झारखंड में झामुमो, कर्नाटक में जेडीएस, तेलंगाना में बीआरएस तो आंध्र में तेलगू देशम, वाईएसआर कांग्रेस, ओडिशा में बीजू जनता दल, महाराष्ट्र में एनसीपी, शिवसेना हो या तमिलनाडु में डीएमके। राज्यों से लेकर केंद्र की सरकार तक में मजबूत हिस्सेदारी का अनुभव लिए इन दलों का अपना वोट बैंक है। अधिकांश क्षेत्रीय दल किसी न किसी गठबंधन का हिस्सा हैं। इंडिया गठबंधन से भाजपा को मिल रही अधकचरी चुनौती के बाद भी भाजपा क्षेत्रीय दलों को महत्व दे रही है और छोटे-छोटे दल जैसे अपना दल, सुभासपा जैसे दलों को भी साधे है। महाराष्ट्र में तो दो शिवसेना, दो एनसीपी बन गयी हैं। नोबुल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने अंग्रेजी मीडिया को दिए साक्षात्कार में क्षेत्रीय दलों के महत्व को रेखांकित करते हुए यहां तक कह दिया कि ममता बनर्जी जैसी लीडर मे देश का नेतृत्व करने की क्षमता है। हालात ऐसे भी आ सकते हैं कि सरकार बनाने में क्षेत्रीय दलों का सहयोग अपरिहार्य हो जाए।
फिलवक्त समाजवादी पार्टी इंडिया अलांयस का हिस्सा है तो वहीं शिवसेना और आम आदमी पार्टी भी इंडिया गठबंधन में हैं। जेडीयू के छिटककर एनडीए की गोद में बैठने से इंडिया गठबंधन को थोड़ी दिक्कत हुई है पर राजद व वाम दलों के साथ वह बिहार में एनडीए को परेशान करने लगा है। ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी किसी भी गठजोड़ में नहीं है पर उसका झुकाव इंडिया गठबंधन की तरफ देखा जा रहा है। कह सकते हैं कि चुनाव बाद इंडिया गठबंधन में आ सकती है। ओडिशा में बीजद, तेलंगाना में के.चंद्रशेखर राव की बीआरएस आजाद हैं पर वक्त आने पर ये दोनों किसी न किसी फोल्ड का हिस्सा हो सकती हैं। इन पर अभी से डोरे डाले जा रहे हैं। प्रश्न है कि क्या क्षेत्रीय दल केंद्र की सत्ता में गेम चेंजर हो सकते हैं?

सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव लगातार विपक्षी दलों को एक साथ आने की बात करते रहे हैं। वह बसपा के भी इंडिया गठबंधन के पक्ष लाए जाने पर सहमत थे पर बात नहीं बनीं। उनका कहना है कि जो दल जिस राज्य में मजबूत है. उसे उस राज्य में गठबंधन का नेतृत्व करना चाहिए। यही वजह है कि यूपी में कांग्रेस को वह 17 सीटें देकर मैदान में प्रभावी ढंग से लड़ रहे हैं। वहीं. ऐसी ही कुछ राय पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की भी है। ये दल भाजपा को अपने-अपने राज्यों में टक्कर दे रहे हैं। नतीजा कुछ भी हो पर भाजपा नेतृत्व को इनने विचलित कर रखा है। एनडीए का शानदार प्रदर्शन के बाद भी पिछले चुनाव में इनकी भूमिका चर्चा में रही। इस चुनाव में इन्हीं के बूते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अबकी बार 400 पार का नैरेटिव सेट किया है।


यूपी की बात करें तो 2019 में समाजवादी पार्टी को 17.96 फीसदी वोट मिले थे, जबकि बीजेपी को 49.56 फीसदी वोट मिले। इसी तरह महाराष्ट्र में शिवसेना को 23.29 तो बीजेपी को 27.59 फीसदी वोट मिले। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को 43.2 तो बीजेपी को 40.25 फीसद वोट मिले। दिल्ली में आम आदमी पार्टी को 18.11 तो बीजेपी को 56.56 प्रतिशत वोट मिले थे। 2019 के चुनाव में शिवसेना और शिरोमणि अकाली दल एनडीए का हिस्सा थीं। पर अब नहीं हैं। जब मोदी ने 2013 में कमान संभाली थी एनडीए में 29 दल थे। सपा विधायक अमिताभ वाजपेयी कहते हैं कि राष्ट्रीय दलों के पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों के प्रति उपेक्षित रवैये के कारण क्षेत्रीय दलों ने राज्यों में आधार मजबूत किया है। यूपी में समाजवादी पार्टी एक नायाब उदाहरण है। पार्टी आज भी पीडीए को जीत का फार्मूला बनाकर चुनाव मैदान में है और भाजपा की घबराहट का कारण बनी है।


2014 के आम चुनाव में बीजेपी ने अपने दम पर 282 सीटें जीती थीं। जबकि एनडीए के बाकी 11 साथी 54 सीटें जीतने में कामयाब हुए थे। एनडीए को 354 सीटें मिलीं थी। लोकसभा चुनाव के बाद कई दल एनडीए में आए, लेकिन कुछ पार्टियों ने एनडीए का साथ छोड़ दिया। भाजपा शानदार प्रदर्शन के बाद भी एनडीए का कुनबा मजबूत करते हुए हमेशा दिखी। कुनबा बढ़ाने की खींचतान ऐसी रही कि भाजपा ने ऐन चुनाव से पहले ही बिहार में जेडीयू को अपने साथ मिलाकर इंडिया गठबंधन को झटका दिया। जीतनराम माझी पहले ही एनडीए में थे। उनकी पार्टी हिंदुस्तान आवाम मोर्चा को 2.4 फीसदी ही वोट मिला था। लोजपा में चिराग पासवान का ग्रुप एनडीए में मिला लिया गया।
अब आप इंडिया गठबंधन को देखिए तो कांग्रेस की अगुवाई वाले गठबंधन में कई पार्टियां ऐसी हैं, जिनका बड़ा सियासी रसूख रहा है और वह एनडीए का हिस्सा भी रही हैं। ऐसे में अलग होने वाली क्षेत्रीय पार्टियों की सियासी राह भी आसान नहीं है। गौरतलब यह है कि तमाम छोटे दलों का वोट सीमित है पर वे किसी न किसी गठबंधन में आने के कारण राष्ट्रीय महत्व की बनती जा रही हैं। उन्हें लगने लगा है कि किंग मेकर की भूमिका उनकी होगी। बीजू जनता दल तो केंद्र की सत्ता के साथ रहने में इस कदर इच्छुक रहती है कि भाजपा के अश्वनी वैष्णव को भाजपा को वोटों का सहयोग देकर राज्यसभा में भेजती है। हालांकि अबकी एनडीए में उसके आने की संभावना थी पर बात नहीं बनी।
इस चुनावी जंग का नतीजा क्षेत्रीय दल तय करें तो चौंकाने वाली बात न होगी। अब तक के चुनावी इतिहास में क्षेत्रीय दलों का चुनावी प्रदर्शन कैसा रहा, इस पर एक नजर डालिए।
क्षेत्रीय दलों का चुनावी इतिहास
पहले चुनाव 1952 में 85 फीसद राष्ट्रीय दल तो 7 फीसद क्षेत्रीय दलों के हिस्से में सीटें आयीं। 1962 में 89 फीसद राष्ट्रीय दल तो 6 फीसद क्षेत्रीय दलों ने सीटें जीतीं। 1980 में 92 फीसद राष्ट्रीय दल, 6 फीसद क्षेत्रीय दल, 1984 में 12 फीसद सीटें क्षेत्रीय दलों के खाते में, 1989 में 5 फीसद, 1992 में 10 फीसद सीटें, 1996 में 24 फीसद, 1998 में 19 फीसद, 1999 व 2004 में 29 फीसद सीटें क्षेत्रीय दलों ने जीतीं, 2009 में 27 फीसद, 2014 में 32 फीसद। 2019 में परिदृश्य देखिए, 10 बसपा, 5 सपा, 16 जेडीयू, 6 एलजेपी, 1-1 झामुमो व एजेएसयू, 22 टीएमसी, 12 बीजेडी, 22 वाईएसआरसीपी, 3 टीडीपी, 23 डीएमके, एक एआईडीएमके, 9 बीआरएस, एक एआईएमआईएम, 18 शिवसेना, 4 एनसीपी व एक एआईएमआईएम।

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