बिहार में प्रथम चरण का मतदान 6 नवम्बर को है। 18 जिलों की 121 सीटों पर वो पड़ेगा। लालू के बड़े बेटे तेजप्रताप का महुआ सीट और अनन्त सिंह की मोकामा सीट के लिए वोटिंग होगी। इनके अलावा भी कई महत्वपूर्ण सीटों पर वोटिंग पैटर्न पर विश्लेषकों की निगाह रहेगी। सत्ता का गणित, गठबंधन की दिशा, और जनमत की तरंग किसी न किसी सामाजिक समूह के इर्द-गिर्द घूमता रहा है। ऐसे में मोकामा के चर्चित नेता दुलारचंद यादव की हत्या और उसके बाद जदयू अध्यक्ष ललन सिंह के बयानों ने राजनीतिक माहौल को अचानक गरमा दिया है। भले ही अबकी लालू के दौर का जातीय ध्रुवीकरण न हो पर ऐसा लगता है कि भूमिहार, राजपुर, ब्राह्मण और लाला (कायस्थ) बनाम पिछड़ा, दलित, मुस्लिम की गोलबंदी मतदान से पहले महसूस की जाने लगी है। बिहार एक बार फिर से जातीय ध्रुवीकरण के पुराने रास्ते पर लौट रहा है?
दुलारचंद यादव मोकामा क्षेत्र के एक प्रभावशाली यादव नेता माने जाते थे। उनकी राजनीतिक पहुंच न केवल स्थानीय समाज में थी, बल्कि वे महागठबंधन की जातीय राजनीति में भी अहम कड़ी थे। उनकी हत्या ने न केवल एक व्यक्ति की मौत का शोक पैदा किया, बल्कि एक पूरे समुदाय में असुरक्षा और असंतोष की भावना को जन्म दिया। हत्या के बाद यादव समाज में यह धारणा बन रही है कि सत्ता के संरक्षण में ऐसे अपराधों को अंजाम दिया जा रहा है। इसने राजद को सरकार के खिलाफ एक ठोस भावनात्मक मुद्दा दे दिया है। दूसरी ओर, जदयू और भाजपा इसे “कानून-व्यवस्था” का मामला बताकर अपने बचाव में तर्क दे रही हैं।
घटना के कुछ दिन बाद जब जदयू अध्यक्ष ललन सिंह मोकामा पहुंचे, तो उन्होंने कहा “हम किसी के दबाव में नहीं झुकेंगे, और हर वर्ग को न्याय दिलाया जाएगा।” यह भी कहा कि विपक्षी नेताओं को घरों से न निकलने दो। इस बयान के राजनीतिक निहितार्थ गहरे हैं। राजद इसे “गैर-यादव पिछड़ों को साधने की कोशिश” के रूप में देख रहा है। बिहार की राजनीति में यादव समुदाय परंपरागत रूप से राजद के वोट बैंक के रूप में देखा जाता है। वहीं, ललन सिंह और नीतीश कुमार की राजनीति नॉन-यादव पिछड़ों, कुर्मीऔर दलित वर्गों पर आधारित रही है। दुलारचंद यादव की हत्या के बाद इन दो सामाजिक समूहों के बीच का मनोवैज्ञानिक फासला बढ़ता दिख रहा है। यादव समुदाय अब इसे “अपनों पर हमला” के रूप में देख रहा है, जबकि जदयू इसको एक व्यक्तिगत अपराध बताने पर अड़ी है। इस परिस्थिति में राजनीतिक दलों की बयानबाज़ी ही सबसे अधिक मायने रखती है क्योंकि यही बयान आगे चलकर जातीय ध्रुवीकरण की दिशा तय कर सकते हैं। राजनीति की दृष्टि से देखें तो दुलारचंद यादव की हत्या ने हर दल को अपने-अपने समर्थक वर्गों को एकजुट करने का अवसर दिया है। राजद इस घटना को “सामाजिक अन्याय” के रूप में पेश कर रही है, वहीं जदयू “विकास और शासन” के एजेंडे को प्रमुख बताने की कोशिश में है। मीडिया में इस घटना को लेकर जो विमर्श बना है, वह भी जातीय रेखाओं को गहराता है। टीवी बहसों से लेकर सोशल मीडिया तक, हर मंच पर सवाल एक ही है “क्या यह यादवों को निशाना बनाने की साजिश है?”
इस प्रकार का नैरेटिव जनता के बीच भावनात्मक विभाजन को और बढ़ा सकता है। सोशल मीडिया की राजनीति ने इस ध्रुवीकरण को कई गुना तेज़ बना दिया है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह घटना विधानसभा चुनावों में एक बड़ा मुद्दा है। अगर विपक्ष यादव समुदाय की असंतुष्टि को भुना लेता है, तो महागठबंधन को बड़ा फायदा हो सकता है। वहीं जदयू-भाजपा गठबंधन अगर इसे कानून-व्यवस्था और विकास की कसौटी पर रखकर जनता को संतुष्ट कर पाए, तो जातीय ध्रुवीकरण सीमित रह जाएगा।


0 टिप्पणियाँ