महेश शर्मा: राज्य बिहार की राजनीति लंबे समय से जातीय समीकरणों के इर्द-गिर्द घूमती रही है। पर 1990 के दशक में एक ऐसा दौर आया जब सत्ता की परिभाषा ही बदल गई। 'भूरा बाल साफ करो' का नारा उस समय केवल एक राजनीतिक नारा नहीं था, बल्कि सामाजिक न्याय और सवर्ण वर्चस्व के खात्मे का प्रतीक बन गया। 'भूरा बाल’ का अर्थ और पृष्ठभूमि इस प्रकार है।
यह शब्द चार सवर्ण जातियों के शुरुआती अक्षरों से बना था — भू (भूमिहार), रा (राजपूत), बा (ब्राह्मण) और ल (लाला यानी कायस्थ)। आज़ादी के बाद लंबे समय तक बिहार की राजनीति और प्रशासनिक ढांचा इन्हीं जातियों के प्रभाव में रहा।
कांग्रेस शासनकाल में सत्ता का केंद्र इन्हीं सवर्ण समूहों के हाथों में था, जबकि पिछड़े और दलित वर्ग प्रशासनिक और राजनीतिक रूप से हाशिए पर थे। लेकिन जब 1980 के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशों ने सामाजिक प्रतिनिधित्व का प्रश्न उठाया, तब राजनीतिक ज़मीन हिल गई। इसी से निकली लहर में 1990 में लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने और उन्होंने सामाजिक न्याय को अपनी राजनीति का केंद्र बना दिया। लालू यादव ने कहा, “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी।”उनका यह नारा पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों के लिए सत्ता में हिस्सेदारी का प्रतीक बन गया।
इसी दौरान 'भूरा बाल साफ करो' का नारा उभरा, जिसका आशय सवर्ण प्रभुत्व को समाप्त कर समाज के निचले तबकों को आगे लाना था। इस राजनीति ने गाँव-गाँव तक यह संदेश पहुँचाया कि अब सत्ता केवल कुछ जातियों की बपौती नहीं रहेगी। पिछड़ी और दलित जातियों के भीतर आत्मसम्मान की एक नई भावना जागी। उन्होंने पहली बार महसूस किया कि सत्ता उनके दरवाज़े तक पहुँची है। भूरा बाल की राजनीति ने बिहार में सत्ता की संरचना बदल दी। राजनीतिक रूप से, पहली बार ओबीसी और दलित समाज को सीधा प्रतिनिधित्व मिला। सामाजिक रूप से, सवर्णों के प्रभुत्व को चुनौती मिली और समाज में एक नयी समानता की चर्चा शुरू हुई। नतीजतन सवर्ण वर्गों में उपेक्षा और असंतोष की भावना पनपी, जिससे भाजपा और अन्य दलों को एक नया राजनीतिक आधार मिला।
जातीय विभाजन गहराने लगे, और विकास जैसे मुद्दे धीरे-धीरे इस राज्य राजनीति के हाशिए पर चले गए। 'भूरा बाल' का दौर भले ही अब इतिहास बन चुका है, पर उसकी छाया अब भी बिहार की राजनीति पर बनी हुई है। आज भी जातीय जनगणना, आरक्षण की सीमा बढ़ाने की बहस, और पिछड़ा-दलित गठबंधन की राजनीति उसी विचारधारा की निरंतरता हैं। यही राजनीति राष्ट्रीय जनता दल की यूएसपी है और तेजस्वी यादव की सियासी विरासत भी।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने संतुलन बनाये रखने के कार्यक्रमों से इसे साधने की कोशिश की, लेकिन राजनीतिक गणित आज भी जातीय समीकरणों पर ही आधारित है।
कुल मिलाकर कहा जा जा सकता है कि 'भूरा बाल' की राजनीति ने बिहार को सामाजिक न्याय का पाठ पढ़ाया, सत्ता को कुछ वर्गों से निकालकर व्यापक जनाधार तक पहुँचाया। परंतु इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि जातीयता बिहार की राजनीति की स्थायी जकड़न बन गई।
विकास, शिक्षा और रोजगार जैसे विषयों के ऊपर जातीय पहचान हावी हो गई। आज बिहार का हर राजनीतिक दल समावेश और विकास की बात करता है, लेकिन उसका आधार अब भी वही पुराना जातीय समीकरण है जिसकी नींव 1990 के दशक की भूरा बाल राजनीति ने रखी थी। 'भूरा बाल' की राजनीति ने बिहार में सामाजिक न्याय का नया अध्याय तो लिखा,
लेकिन साथ ही जातीय विभाजन की गहरी रेखा भी खींच दी, जो आज भी अमिट है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

0 टिप्पणियाँ