महेश शर्मा: बिहार चुनाव से देश की राजनीति का संदेश बाहर आएगा जिसका सीधा असर केंद्र पर भी पड़ेगा। फिर वह चाहे सत्ता की राजनीति हो या विपक्ष की। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बिहार चुनाव केवल सरकार बदलने का मौका नहीं, बल्कि यह तय करेगा कि देश की जनता जातीयता, वादों और व्यक्तित्व की राजनीति से ऊपर उठकर विकास और सुशासन को कितना महत्व देती है। यह चुनाव एक तरफ नीतीश कुमार के लिए आरपार की लड़ाई है वहीं तेजस्वी यादव के लिए सबसे बड़ा मौका। राहुल और वाम दल उन्हें ताकत दे रहे हैं। लेकिन आईसीआरटीसी घोटाले के मामले में कोर्ट की कार्रवाई से उनकी मुश्किलें बढ़ीं हैं। कोर्ट ने फैसला सुरक्षित कर लिया है। दस नवम्बर को जमीन के बदले नौकरी के मामले में जजमेंट आ सकता है। इसके एक दिन बाद बिहार में दूसरे चरण का मतदान है। पहले चरण में एनडीए के दबदबे वाली 90 सीटों पर मतदान होगा। उधर खेल बिगाड़ने के पीके यानी प्रशांत किशोर की एंट्री से बिहार में खासी हलचल है। भाजपा की बी टीम के आरोपों के साथ आम आदमी पार्टी और सुभासपा का मैदान में कूदना थोड़ा बहुत असर डाल सकता है। एनडीए में घटक दलों में सीट शेयरिंग को लेकर टुन्न-फुस्स चल रही है। भाजपा और जद (यू) जुड़वा भाईए की तरह बराबर पर हैं। बिहार में नीतीश बड़े भाई हुआ करते थे पर अब राजनीति के गर्भ से जुड़ा पैदाइश वाले बन चुके हैं। बिहार की राजनीति की अंधी गली में चिराग की रोशनी तेज होने से नीतीश, जीतनराम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा नाक भौं सिकोड़े मजबूरी में भाजपा की गलबहियां झेल रहे हैं। महा गठबंधन कुलांचे मारने लगा है। साफ है कि बिहार में 2025 की लड़ाई का देशव्यापी असर दिखाई देगा। मोदी सरकार नीतीश और नायडू की बैसाखी पर खड़ी है। यह भाजपा समझ रही है। राजनीतिक अस्तित्व के लिए बिहार में लड़ी जा रही जंग का नतीजा 14 नवम्बर को आएगा। तब तक तेल और तेल की धार देखते रहिए। कहा जा सकता है कि पटना का फैसला आने वाले समय में दिल्ली की राजनीति का रुख तय करेगा। भाजपा के लिए बिहार जितना इसलिए भी जरूरी है कि अगले साल की चुनावी जंग पश्चिमबंगाल में उसे लड़नी है। यदि बिहार हारे तो इसका असर वहां भी दिख सकता है।
बिहार विधानसभा चुनाव केवल एक राज्य की सत्ता का प्रश्न नहीं, बल्कि आने वाले राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य का संकेतक माना जा रहा है। बिहार की राजनीति हमेशा देश की दिशा तय करने में अग्रणी रही है। 1974 के जेपी आंदोलन से लेकर मंडल-कमंडल की राजनीति तक, इस भूमि ने कई बार भारतीय राजनीति को नई दिशा दी है। इस बार के चुनाव में दो प्रमुख गठबंधनों एनडीए (भाजपा-जदयू) और इंडिया गठबंधन (राजद-कांग्रेस-वाम दल) के बीच सीधी टक्कर है। चुनाव बाइपोलर दिख रहा है। पीके की लोकप्रियता कहीं कहीं त्रिकोणीय लड़ाई बनाकर नतीजे प्रभावित कर दे तो ताज्जुब न होगा। फिलहाल चुनाव के नतीजे यह तय करेंगे कि जनता राष्ट्रीय नेतृत्व और स्थानीय मुद्दों को किस नजर से देख रही है। अब अगर एनडीए सत्ता में लौटती है तो यह संदेश जाएगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जोड़ी अब भी जनता में भरोसेमंद है। विपक्षी गठबंधन के लिए यह झटका होगा और यह संकेत देगा कि जनता स्थिरता और विकास को प्राथमिकता दे रही है। लेकिन यदि इंडिया गठबंधन को सफलता मिलती है तो यह केंद्र सरकार के खिलाफ जनता के असंतोष का प्रतीक माना जाएगा। बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दे फिर से राजनीतिक विमर्श के केंद्र में आ सकते हैं।
बिहार चुनाव नेतृत्व की साख की भी परीक्षा है। नीतीश कुमार के लिए यह परीक्षा उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता और बार-बार गठबंधन बदलने की छवि पर है। वहीं, तेजस्वी यादव के लिए यह मौका है खुद को युवा और वैकल्पिक नेतृत्व के रूप में स्थापित करने का। भाजपा के लिए चुनौती है कि बिना स्थानीय करिश्माई चेहरे के वह कितना जनसमर्थन जुटा पाती है। इस चुनाव से यह भी परखा जाएगा कि क्या बिहार की जनता जातीय समीकरणों से ऊपर उठकर विकास और रोजगार को मुद्दा बनाएगी या फिर परंपरागत राजनीति ही निर्णायक रहेगी। बिहार के नतीजे झारखंड, उत्तर प्रदेश और बंगाल जैसे पड़ोसी राज्यों की राजनीति पर भी असर डाल सकते हैं। अगर विपक्ष मजबूत होता है तो राष्ट्रीय स्तर पर नए गठबंधनों और समीकरणों की संभावनाएं बढ़ेंगी।

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