संयुक्त परिवार की धुरी से चाचा-चाची जमाने पहले अलग कर दिए गए. अब अपने तजुर्बे से सिखाने वाली दादी और बाबा से बढ़ती दूरी पाश्चात्य सभ्यता की ओर समाज के तेजी से बढ़ चुके कदम की ओर इशारा कर रही है. यह कहा जा सकता है कि अपवाद के रूप में बस संयुक्त परिवार समाज में बचे हैं? इस सामाजिक परिवर्तन के परिणाम सामने हैं. बच्चे दादी-बाबा से कहानी नहीं, मोबाइल पर कार्टून मूवी देखकर सोते हैं. हालात न जाने कब यहां तक पहुंच चुके हैं कि मोबाइल हाथ में देने के बाद शिशु दूध पीते हैं और किशोरों के गले से नीचे निवाला उतरता है. पाश्चात्य या कोई अन्य संस्कृति का अनुशरण करने से मैं किसी को मना नहीं करती. भारतीय संस्कृति में ढलने के बाद अन्य संस्कृतियों को आजमाएं, तब आप उसके दुष्प्रभाव से बचे रहेंगे. दादी बाबा वृद्ध आश्रम या एकांत में नहीं, नाती-पोतों के साथ होंगे. मोबाइल नहीं, उनके वातसल्य से बालपन पोषित और विकसित होंगे. भारतीय संस्कृति कवच है.
फूड सप्लाई करने वाली कंपनियों के युग में बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास पर उठती है शंका
सीएचएस गुरुकुलम में शिक्षाविद एवं प्रधानाचार्य हिंदी भाषा की विशेषज्ञ ज्योति विज के समक्ष हार्टफुलनेस निबंध लेखन कार्यक्रम-2025, जिसका विषय है 'व्यक्तिगत विकास दूसरों की सहायता के बिना संभव नहीं है' पर चर्चा में आया कि भारतीय संस्कृति से दूरी के कारण बच्चे बिगड़ रहे हैं. घर नहीं बाहर का फास्ट फूड बच्चों को पसंद आ रहा है, जिसकी शुद्धता की कोई गारंटी नहीं है. फूड सप्लाई करने वाले उपक्रमों के युग में बच्चों के शारीरिक विकास पर शंका उठती है. हमारे युग में दादी-बाबा कहावतों से शिक्षित करते थे कि जैसा खाओ अन्न, वैसा बनेगा मन.
हैलो-हाय के पश्चात चलन को अपनाएं, अपनी संस्कृति का परित्याग न करें, गुरु के पैर छूना है गुरुकुल परम्परा
आशीर्वाद तक देने में भी कंजूसी आ गई है. बच्चे आदर के भाव से शिक्षकों या अपने से बड़ों के चरणों को स्पर्श करते हैं. बदले में वे शिक्षक से आशीष वचन की उम्मीद रखते हैं. गुरुकुल की भी ये परम्परा थी. इसके वैज्ञानिक महत्व और लाभ भी बताए जाते हैं. इस पावन परम्परा से शिक्षक बचते हैं. ऐसा लगता है कि वे पिछड़ जाएंगे. हैलो-हाय के पश्चात चलन को भी अपनाएं, अपनी संस्कृति का त्याग न करें, उसे पकड़कर रखें. आज शिक्षक और छात्रों के बीच दूरियां बढ़ती जा रही हैं. शिक्षकों के प्रति आदरभाव में गिरावट आई है. शिक्षकों को राष्ट्र निर्माता की संज्ञा से अलंकृत किया गया है. इस उम्मीद को बरकरार रखने के लिए हमें अपनी संस्कृति से जुड़े रहना होगा.
बच्चों के लिए समय नहीं है! स्कूलों में टीचर्स और घर पर माता-पिता अपने मोबाइल लत पर अंकुश लगाएं
सोशल मीडिया का सही उपयोग हम नहीं करते हैं. यही वजह है कि यह अब बीमारी का रूप ले रही है. बच्चे चिड़चिड़े और हिंसक हो रहे हैं. स्कूलों में टीचर्स और घर में माता पिता को अपनी मोबाइल लत पर अंकुश लगाना होगा. शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक विकास के लिए बच्चों से संवाद बढ़ाना होगा. रामायण और भगवतगीता को पढ़ने के लिए प्रेरित करना होगा. छोटे बच्चों के लिए यू ट्यूब पर बहुत सारी एनिमेटेड सामग्री है. प्रेरणादायक कहानियां और वीर हनुमान से बच्चे नैतिक मूल्यों को देखेंगे और सीखेंगे. हम देखकर सीखते हैं और हमारे जैसे विचार होते हैं, वैसे बनते जाते हैं.
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